
दु:ख के सत्य की स्वीकृति से ही आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रारंभ माना जाता है | यद्यपि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दु:ख का कारण क्या है | सबसे महत्वपूर्ण पहलू वास्तव में यही है कि किस कारण से दु:ख होता है | भगवान बुद्ध का द्वितीय आर्य सत्य कहता है -” अयम दुःखम समुदायों अर्थात दु:ख का स्रोत यही है |” दुख समुदाय का अर्थ -स्रोत ,उद्भव, कारण अथवा संयोजन से है|

द्वितीय आर्यसत्य स्पष्ट रूप से कहता है कि दुख का कारण ‘तन्हा’ या ‘तृष्णा’ है | ‘तन्हा’ या ‘तृष्णा’ दुख का सार्वत्रिक कारण है | यह कारण-प्रभाव के वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है| कारण-प्रभाव सिद्धांत कहता है कि किसी भी परिणाम अथवा प्रभाव के लिए निश्चित रूप से एक कारण होना चाहिए | प्रकृति में कोई भी घटना बिना किसी कारण के नहीं होती | आध्यात्मिकता में इस वैज्ञानिक सिद्धांत का बहुत महत्वपूर्ण है ताकि दु:ख के कारणों को समझा जा सके| दु:ख अपने आप में एक परिणाम है जबकि तृष्णा उसका कारण है | परिणाम तब तक संभव नहीं है जब तक की उसका कोई कारण ना हो | अधिकांश मनुष्य संपूर्ण जीवन दु:ख की पीड़ा भोगते हैं | लेकिन इसके पीछे के कारण को समझ नहीं पाते | जन्म के साथ ही हम अनंत इच्छाओं के गुलाम हो जाते हैं | मानवता की सबसे बड़ी त्रासदी है कि हम दु:ख के कारण अथवा तृष्णा को ठीक से समझ नहीं पाते | इसी कारण भगवान बुद्ध ने संपूर्ण जगत को स्पष्ट ज्ञान दिया -” तृष्णा और अज्ञानता ही मानव के दु:खों का मूल कारण है| “

तन्हा’ या ‘तृष्णा’ कभी पूर्णतः संतुष्ट नहीं हो सकती | एक तृष्णा खत्म होती है और दूसरी तृष्णा का जन्म होता है | दूसरी तृष्णा खत्म होती है और तीसरी तृष्णा का जन्म होता है | मानव अपना सम्पूर्ण जीवन तृष्णा दर तृष्णा की पूर्ति में समाप्त कर देता है | अज्ञानता एक भ्रम है , जो मानव के चारों तरफ एक अंध-सीमा का निर्माण करता है जिससे पार पाना आसान नहीं होता | अज्ञानता के कारण मानव संसार को उसके वास्तविक रूप में देख नहीं पाता | इस संसार में सारे दु:ख और पीड़ा इसी अज्ञानता या अविद्या के कारण शुरू होते हैं | जो कोई मनुष्य अज्ञानता की सीमा के बाहर आ पाते हैं वहीं परम ज्ञान को उपलब्ध होते हैं और दु:ख के इस अनंत चक्र से मुक्त हो पाते हैं|

इच्छा या तृष्णा अपने आप में बुरा नहीं है बल्कि इसके साथ जुड़ी हुई आसक्ति वास्तविक दु:ख का कारण है | जीवन अथवा भव-इच्छा इस संसार में अपने साथ अनंत इच्छाओं को लेकर आती है | यद्यपि मनुष्य ना केवल अपने भौतिक और सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति रखता है बल्कि अपने विचार, अपने मत, अपनी सोच अपने भूतकाल के अनुभव- सबसे गहरी आसक्ति बनाए रखता है | यह सारी चीजें ‘अनित्यता के सिद्धांत’ से नियमित होती है| किसी के पास धन और समृद्धि है लेकिन जब क्षय होता है तो इसके साथ जुड़ा आसक्ति दु:ख का कारण बनता है| किसी के साथ प्रेम और स्नेह है लेकिन जब संबंध खराब होते हैं या टूटते हैं तो इससे जुड़ी आसक्ति दुख का कारण बनते हैं | किसी के पास अपने विचार और अपनी मान्यताएं हैं लेकिन जब इसकी आलोचना होती है तो इससे जुड़ी आसक्ति दु:ख का कारण बनती है|

बुराई के तीन मूल को तृष्णा, अज्ञानता और घृणा से सांकेतिक अभिव्यक्ति दी गयी है | यह मूल तीन तत्वों का घातक संयोजन है जो दु:ख का मूल कारण है | बौद्ध मत में मान्यता है कि तृष्णा का प्रतीक एक मुर्गा है, अज्ञानता का प्रतीक एक सूअर जबकि घृणा या विध्वंसक प्रवृत्ति का प्रतीक सांप है| इन सभी का विशिष्ट सांकेतिक अर्थ है | तृष्णा हमारी इन्द्रियों से गहरे रूप से जुड़ी हुई है | तृष्णा को इन्द्रियों का माध्यम चाहिए ताकि उसे अनुभव किया जा सके | आंख एक आलंबन है किसी दृश्य के लिए, उसी प्रकार कान किसी ध्वनि के लिए, नाक घ्राण के लिए, जीभ स्वाद के लिए, त्वचा स्पर्श के लिए और मन विचारों के लिए | धम्मपद शिक्षा देता है -” यदि यह असम्यक तृष्णा इस संसार में किसी व्यक्ति को वशीभूत कर ले तो दु:ख उसी प्रकार बढ़ता है जैसे बारिश के बाद जंगली घास | ” तृष्णा की एक विशिष्ट प्रकृति पुनः उत्पन्न होने की है यदि उसे जड़ से नहीं समाप्त किया जाता | धम्मपद का पद 338 स्पष्ट रूप से कहता है -” यदि इसको जड़ से समाप्त नहीं किया जाए तो यह बार-बार आता है | यह अपना रास्ता इन्द्रियों के माध्यम से खोज लेता है| ”
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