कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

भगवद गीता का विश्व-प्रसिद्ध श्लोक “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” मनुष्य को कर्मयोग की उत्तम शिक्षा देता है। इस श्लोक का अर्थ बहुत व्यापक है जिसके द्वारा भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्यों को अपने निर्धारित कर्मों को निष्काम भाव से करने की शिक्षा दी है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
कर्मयोग का यह श्लोक श्रीमद भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का 47वां श्लोक है। आइए कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन श्लोक का अर्थ सहित व्याख्या, पूर्ण श्लोक, निबंध, और भगवद गीता में उसका स्थान जानते हैं। इस श्लोक में दी गई कर्मयोग की शिक्षा जीवन-उद्देश्य की तरह है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन का अर्थ
अर्थ: “कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति न हो।“

प्राचीन काल से ही कर्मयोग के इस श्लोक का अर्थ कई महान साधू-संतों, ज्ञानियों और विचारकों ने बताया है। आइए कुछ प्रसिद्ध संतों द्वारा बताए इस श्लोक का अर्थ जानते हैं:
स्वामी रामसुखदास (गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमदभगवद्गीता साधक संजीवनी में स्वामी रामसुखदास द्वारा इस संस्कृत श्लोक का अर्थ इस प्रकार दिया गया है)-
कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
जगद्गुरू शंकराचार्य
आदि शंकराचार्य ने इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है:
“तेरा कर्म में ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठा में नहीं। वहाँ ( कर्ममार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फल में कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्था में कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिये।“
स्वामी निखिलानंद (रामकृष्ण मठ)
“कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति न हो।“
वैसे तो स्वामी विवेकानंद ने भगवद्गीता पर कोई टीका या भाष्य नहीं लिखा है किन्तु उन्होने कर्मयोग को कर्म के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का एक तरीका माना है। वे कहते हैं कि बिना किसी स्वार्थ के लोक कल्याण के लिए किया गया कर्म मुक्तिकारक होता है। इस प्रकार के कर्म से चित्त की शुद्धि होती है और ज्ञान लाभ भी होता है।

श्लोक की व्याख्या: भगवद गीता के इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोग के अनुसार कर्म करने की शिक्षा दी है। वे कहते हैं कि अपने नियत कर्मों में अगर तुम लिप्त नहीं होना चाहते हो तो तुम्हें कभी भी अपने किए गए कर्म के फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि कर्मों का फल तुझ पर निर्भर नहीं है। मनुष्य का अधिकार केवल किसी कर्म को करने में ही है। उसके फलों में नहीं।
तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही कर्म ना करने में आसक्ति रखो।
यदि कोई मनुष्य कर्म फलों की इच्छा करेगा तो उसे भविष्य में इसे भोगने के लिए तत्पर रहना पड़ेगा। इच्छा के साथ किया गया कर्म बंधन उत्पन्न करता है। भगवद्गीता में कर्मयोग मुक्ति प्राप्त करने के मार्ग के रूप में वर्णित हुआ है। इसलिए मुक्ति की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं को सदैव कर्मयोग के अनुसार ही कर्म करना चाहिए।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन इस श्लोक में कर्म शब्द के भिन्न अर्थ हैं। किसी गृह त्यागी भक्त के लिए भक्ति सेवा ही कर्मयोग है। वह सदैव कीर्तन, सत्संग और ईश्वर में चिंतन करता हुआ जीवन व्यतीत करे। संग्रह की भावना उसके अंदर नहीं होनी चाहिए।
किन्तु किसी गृहस्थ के लिए गृहस्थ आश्रम के नियत कर्मों को निष्काम भाव से ईश्वर प्राप्ति का साधन जानकार करना श्रेष्ठ कर्मयोग है। ठीक इसी प्रकार किसी ध्यान योगी को अपने अंदर आत्मज्ञान के साक्षात्कार से परम तत्व को जान लेना ही कर्मयोग है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन पूर्ण श्लोक
यह पूर्ण श्लोक महाभारत के भीष्म पर्व में स्थित गीता के दूसरे अध्याय का 47वां श्लोक है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। 2.47।।
यह योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश दिया गया है। इस श्लोक के गूढ़ अर्थ में है कि कर्मयोग के मार्ग पर चलकर मनुष्य अपनी पूर्णता का अनुभव कर सकता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन : भगवद गीता
कर्मयोग भगवान श्री कृष्ण द्वारा उपदेश दी गई गीता का मुख्य भाव है। भगवद गीता विभिन्न परिस्थितियों में समदर्शी रहते हुए भी मनुष्य को कर्मयोग करने की शिक्षा देती है।
भगवद्गीता जिसे केवल “गीता” के नाम से भी जाना जाता है, महाभारत महाकाव्य का एक अंश है जिसमें 18 अध्याय हैं। गीता का ज्ञान योगेश्वर कृष्ण द्वारा कौरवों और पांडवों के मध्य महाभारत युद्ध के समय कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में पांडव पुत्र अर्जुन को दिया गया था।
इसमें कर्म के उच्चतम आदर्शों को अपने जीवन कर्म में ढालने और उन्हे उच्चतम स्थिति तक विकसित करने का रहस्य भरा पड़ा है। कर्मयोग के माध्यम से यदि अपने कर्मों को निष्काम भाव के करने का अभ्यास कर लिया जाए तो समझो आपने जीवन जीना सीख लिया है।
भगवद गीता में किसी संप्रदाय का कोई आग्रह नहीं है बल्कि सभी समकालीन संप्रदायों और मतों का समन्वय है। गीता में सांख्य, ज्ञान, योग, भक्ति, और कर्म के मतों का बड़े ही सुंदर ढंग से समन्वय किया गया है। किन्तु कर्मयोग गीता का प्राण है। यह इस महान ग्रंथ का मुख्य प्रतिपादित विषय है।
एक बात ध्यान देने वाली है कि श्री कृष्ण ने कर्मों की कुशलता को ही योग माना है (योगः कर्मसु कौशलम)। वे योग को किसी विशेष पद्धति से नहीं जोड़ते। किन्तु सभी पद्धतियों में कर्मों को कुशलता पूर्वक करने को ही योग घोषित किया है।
इस लिहाज से भगवद गीता का कर्मयोग विशेष है। श्री कृष्ण ने सन्यास और कर्म में कर्मयोग को ही विशिष्ट माना है। वास्तव में कर्मयोग वीरों का योग है। साहस का योग है। वह अपने कर्मों को करते हुए भी परमेश्वर तक जाने का अद्वितीय मार्ग है। अन्य सभी मार्ग उसके समक्ष गौण हैं।
गीता मानती है कि निर्लिप्त हुए बिना कर्म मुक्तिदायक नहीं हो सकते। मनुष्य के सिवाय कोई भी प्राणी इस मुक्ति का अधिकारी नहीं है। पशु-पक्षी और देवताओं तक जितनी भी सत्ता की अवस्थाएँ हैं, वे सिर्फ भोग योनि हैं। इसलिए गीता सावधान करते हुए कर्मयोग के माध्यम से इस देव दुर्लभ मानव जीवन में इसके उद्देश्य की पूर्ति के लिए तत्पर हो जाने का मार्ग प्रशस्त करती है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन : जीवन उद्देश्य
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक उद्देश्य होना चाहिए। किन्तु क्या आपने कभी विचार किया है कि उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कर्म कैसे करने चाहिए। क्या हम कर्मों को करने की विधि से भी जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं?
अधिकतर मनुष्य पहले से ही कर्म से मिलने वाले लक्ष्य या फल के प्रति आसक्ति लगाए रखते हैं। वे सिर्फ इसलिए कर्म करते हैं क्योंकि उन्हे किसी वस्तु, पद, लाभ या सम्मान की इच्छा होती है। इसलिए ऐसे लोगों के कर्म उन कर्मों के फलों की इच्छा के अंतर्गत हो जाते हैं और वे उससे बंध जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में वे मोह और अज्ञान से घिर जाते हैं।
उदाहरण के लिए जब हम किसी अन्य मनुष्य की सहायता करते हैं तो उससे बदले में कोई आशा न रखनी चाहिए। यदि हम कोई संसार की भलाई का सत्कर्म भी करते हैं तो इस बात का तनिक भी गुमान न होना चाहिए कि इससे हमारी कीर्ति या यश बढ़ेगा अथवा हमारा नाम होगा। किसी भी प्रकार की प्रशंसा की आशा नहीं होनी चाहिए। यानि अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए उसके फलों को ईश्वर को अर्पित कर देना चाहिए।
भारत के इतिहास में कई अन्य महान विचारकों ने भी अपने जीवन पर इस श्लोक के प्रभाव को माना है। महात्मा गांधी, श्री अरविंद, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस समेत भारत के कई दिग्गज व्यक्तियों ने इसे अपना जीवन उद्देश्य बनाया है। इस श्लोक में छिपा जीवन उद्देश्य वास्तव में इतना क्रांतिकारी है कि इसकी तुलना दुनिया के किसी अन्य दार्शनिक मत से की ही नहीं जा सकती।
कर्मयोग का यह सिद्धान्त सिर्फ सिद्धान्त नहीं है अपितु परमेश्वर की महान घोषणा है। यह घोषणा है कि कोई भी मनुष्य केवल कर्म के सहारे भी उन तक पहुँच सकता है। ना कोई जाति बंधन और ना ही किसी संप्रदाय का अनचाहा प्रभाव। यह मुक्ति का एकमात्र उपाय है जो सबके लिए सहज और सुलभ है।
जैसे सभी नदियां अंत में सागर में मिल जाती हैं वैसे ही सभी मत और आध्यात्मिक मार्ग अंत में परमेश्वर तक ही पहुँचते हैं। आप किसी भी मार्ग का चयन करें किन्तु जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कर्मयोग अति आवश्यक है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन : निबंध
मनुष्य जीवन कर्मप्रधान है। कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता है। हर व्यक्ति को अपने जीवन यापन के लिए कुछ न कुछ कर्म करना पड़ता है। किन्तु यही कर्म उसके आने वाले भविष्य और व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। भावनाओं और इंद्रियों के वशीभूत होकर जो लोग कर्म करते हैं वे अपनी इच्छा को नियंत्रित नहीं कर पाते। ऐसे में वे कर्मफल में बंध जाते हैं और बार-बार आसक्ति में पड़कर कर्म करने के कारण अच्छे-बुरे में अंतर नहीं कर पाते। इसलिए कर्म के फल की चिंता किए बिना अपने सामने आए हुए कार्य को निष्काम भाव से और पूरे मनोरथ से पूरा करना ही मनुष्य के लिए उत्तम है।
जीवन में कर्म, ज्ञान और भक्ति, इन तीनों में से किसी एक का अथवा तीनों का सहारा लेकर मनुष्य को अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करना चाहिए। भारतीय शास्त्रीय परंपरा में भौतिकवादी जीवनशैली के त्याग और अपने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से स्वयं और जगत के कल्याण की कामना की गई है।
इस जीवन दर्शन को ही ऋग्वेद के श्लोक “आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च” में अभिवक्त किया गया है। भारतीय सनातन परंपरा में प्रस्थानत्रय यानि उपनिषद, ब्रहमसूत्र, एवं श्रीमद भगवद्गीता इसी आत्मज्ञान की प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। किन्तु भगवद गीता ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें यह घोषणा की गई है कि केवल कर्मयोग से भी मनुष्य उस स्थान को प्राप्त कर सकता है जिस स्थान को योगी और ज्ञानी ध्यान साधना से प्राप्त करते हैं।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” का अर्थ अगर जीवन में उतार लिया जाये तो हमारा जीवन अस्त-व्यस्त के बदले संयमित और व्यवस्थित हो सकता है। हम तटस्थ दृष्टा की भांति अपने कर्मों को तो करेंगे किन्तु उनमें हमारी कोई लिप्तता न रह जाएगी। इसका सबसे बड़ा फायदा तो आध्यात्मिक उन्नति है ही किन्तु एक दूसरा महत्वपूर्ण फायदा भी है। और वह है प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उचित निर्णय लेने की क्षमता का विकास। इसे ही “Decision Making” माना जाता है।
कर्मयोग के ज्ञान से शुद्ध हुआ एक कर्मयोगी किसी भी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता। वह जीवन में संतुलन बनाता हुआ आगे बढ़ जाता है। सकाम कर्म अपने लाभ और अपनी इच्छा के अधीन होकर किया जाता है।
गीता के इस श्लोक की महत्ता को ना सिर्फ भारतीय परंपरा में बल्कि पाश्चात्य मनोविज्ञान में भी प्रबल मान्यता मिली है। यही कारण है कि अमेरिका, यूरोप समेत विश्व के तमाम देशों में इस अद्वितीय ग्रंथ और उसमें वर्णित कर्मयोग को अध्यापन के विषय के रूप में शामिल किया गया है।
गीता मानव जाती के लिए अथाह ज्ञान का ऐसा समुद्र है जिसमें डूबकर कई महान विचारकों ने अपने जीवन को धन्य किया है। गीता के कर्मयोग से अमेरिका विचारक जैसे कि Ralph Waldo Emerson (1803-1882) और Henry David Thoreau (1817-1862) भी बहुत प्रभावित हुए हैं।
भगवद गीता उन्होने सीखा है कि अपने कर्म को ही करना चाहिए। दूसरों के कर्म से आकर्षित नहीं होना चाहिए भले ही वे हमारे कर्मों से श्रेष्ठ क्यों न हों। अर्थात हमें अपने व्यक्तित्व के अनुसार ही जीवन जीना चाहिए। दूसरों की नकल नहीं करनी चाहिए।
एक योगी शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों से केवल आत्म-शुद्धि के लिए कर्म करता है। निष्काम कर्मयोग के अनुसार किया गया कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता। ऐसा छोटा सा कर्म भी महान भय से बचा सकता है। ज्ञानी को चाहिए कि सोच-समझकर निश्चित कर ले कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है क्योंकि बड़े-बड़े ज्ञानी महात्मा भी कर्म और अकर्म में अंतर नहीं कर पाते।
जो विश्व को ईश्वर का रूप मानकर और सारे कर्म ईश्वर को समर्पित कर के कार्य करते हैं, केवल वही सही में कर्म करते हैं। सत्व, तमस और रज प्रकृति के इन तीनों गुणों से अलग होकर एवं योग में स्थित होकर कर्म ही कर्मयोग का लक्ष्य है। यही गीता के महावाक्य “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” का सही उद्देश्य भी है।